वक्त के साथ फिल्मों में बदली मा

वक्त के साथ फिल्मों में बदली मा

भारतीय सिनेमा ने अपने 100 साल के सफर में अपने आप को बदलते सामाजिक, राजनीतिक, आपराधिक, प्रेम इत्यादि मोर्चो पर स्वयं को भी उसी अंदाज में बदला है। धर्म पुराण से शुरू हुआ सिनेमाई सफर आज अश्लीलता से सरोबार हो चुका है। सब कुछ बदला है। एक वक्त था जब सिनेमा में मां की भूमिका बडी अहम और ताकतवर हुआ करती थी। मां नाम के इस किरदार के बिना हिन्दी सिनेमा अपने आप को अधूरा पाता था लेकिन जैसे-जैसे समाज में परिवर्तन आता गया वैसे-वैसे फिल्मों में मां की भूमिका में परिवर्तन आने लगा।

जो मां ईश्वर भक्त हुआ करती थी वहीं आज मदिरापान करती कामकाजी महिला के रूप में प्रस्तुत हो रही है। बॉलीवुड में पुराने दौर में जहां मां का किरदार केवल त्याग, बलिदान, परोपकार तक ही सीमित था, वहीं आज की मां इससे बिल्कुल अलग है। वह भावुक होने के साथ व्यावहारिक भी है। मां के किरदार को सबसे अधिक किसी ने जीया तो वह हैं निरूपा रॉय। उनका व्यक्तित्व तत्कालिक आदर्श मां का प्रतिरूप हुआ करता था। फिल्म दीवार का मेरे पास मां है.. संवाद आज भी उतना ही प्रचलित है जितना उस वक्त था। मशहूर अदाकारा शबाना आजमी कहती हैं कि भारतीय सिनेमा ने मां को हमेशा आदर्शवादी रूप में प्रस्तुत किया है। वह अपने बच्चे के लिए हर परेशानी से लडने को तैयार रहती हैं, लेकिन अब वक्त बदल गया है। अगर बच्चे मां को दोस्त मान रहे हैं या उनकी सोच को समझ पा रहे हैं तो इसका एक खास कारण यह भी कि मां ने भी खुद को कहीं न कहीं बदला है।

फिल्म विक्की डोनर में मां डॉली शराब पीती है लेकिन विक्की को कोई एतराज नहीं। उसका मानना है कि अगर इतनी मेहनत करने के बाद दो घूंट से उसे खुशी मिलती है तो इसमें कोई हर्ज नहीं। काजोल ने भी माई नेम इज खान में एक ऎसी मां का किरदार निभाया था, जो अपने बच्चे को पिता की कमी महसूस नहीं होने देती। बॉलीवुड में ऎसी तमाम फिल्में बनी हैं जिसमें मां के किरदार को उभरने का मौका मिला है। सलीम-जावेद की तो कई फिल्में इसका उदाहरण है। उनकी लिखी त्रिशूल, कभी-कभी, दीवार आदि ऎसी फिल्में हैं जिनमें मां का किरदार मह�वपूर्ण रहा है। इन सबसे परे मां की भूमिका को सबसे ज्यादा अगर किसी फिल्म ने पहचान दी तो वह है मदर इंडिया। मदर इंडिया में नर्गिस ने मां के किरदार को नई बुलंदियों तक पहुंचाया।

मेहबूब खान की इस फिल्म ने मां की एक ऎसी अमिट छवि दर्शकों के साथ सिनेमाई परदे पर गढी है जिसे आज निर्देशक थोडे बहुत परिवर्तन के साथ प्रस्तुत करते आ रहे हैं। हालांकि मेहबूब की यह फिल्म उनके द्वारा ही बनाई गई फिल्म औरत का रीमेक थी। औरत बॉक्स ऑफिस पर असफल रही थी जबकि मदर इंडिया ने सर्वकालिक सुपर हिट फिल्मों में शुमार होती है। आज पर्दे की माएं आदर्शवाद से दूर वास्तविकता के ज्यादा करीब हैं, जो अपने बच्चों की परेशानी को खुद नहीं ढोती बल्कि उन्हें खुद उनका सामना करने के लिए तैयार करती है। पहले की फिल्मों में जहां मां को बूढी, विधवा, लाचार और दुखी औरत के रूप में पेश किया जाता था वहीं आज की मां को युवा दिखाया जाता है। न सिर्फ युवा बल्कि सम्पन्न, पढी लिखी और कामकाजी महिला के साथ-साथ अपने रिश्तों के प्रति सजग और जागरूक महिला के रूप में आज उसे पेश किया जाता है।