फिल्म समीक्षा : बोल बच्चन

फिल्म समीक्षा : बोल बच्चन

फिल्म समीक्षा
निर्माता : अजय देवगन, श्री अष्टविनायक फिल्म्स
निर्देशक : रोहित शेटटी
गीत : शब्बीर अहमद, फरहाद साजिद
संगीत : हिमेश रेशमिया, अजय अतुल
कलाकार : अजय देवगन, अभिषेक बच्चन, असिन, प्राची देसाई, अर्चना पूरणसिंह, असरानी, कृष्णा अभिषेक और गेस्ट रोल में अमिताभ बच्चन


रोहित शेट्टी की फिल्म "बोल बच्चन" हंसी का फव्वारा है। दर्शक फिल्म देखता है, हंसता है, दिल खोलकर हंसता है और जरूरत पडने पर जोर के ठहाके भी लगाता है। इस फिल्म में उन्होंने जो कुछ दिखाया उसके बाद यह कहा जा सकता है कि तरकश के सारे तीर समाप्त हो चुके हैं। जिस तरह का एक्शन उन्होंने बोल बच्चन में डाला है वह उनकी पिछली फिल्मों की याद दिलाता है। हालांकि उन्होंने इस फिल्म के कथानक को आगे बढाने की गुंजाइश फिल्म में छोडी है।
इस बार सिर्फ एक काम उन्होंने नया किया है वह यह कि उन्होंने अपने मुख्य किरदारों अजय देवगन और अभिषेक बच्चन को निखारा है। रोहित शेट्टी की फिल्म बोल बच्चन उनकी पुरान हास्य प्रधान फिल्मों की कडी में हैं। बेरोजगार अब्बास अपनी बहन सानिया के साथ पिता के दोस्त शास्त्री के साथ उनके गांव रणकपुर चला जाता है। पितातुल्य शास्त्री ने आश्वस्त किया है कि पृथ्वीराज रघुवंशी उसे जरूर काम पर रख लेंगे। गांव में पृथ्वीराज रघुवंशी को पहलवानी के साथ-साथ अंग्रेजी बोलने का शौक है। उन्हें झूठ से सख्त नफरत है। घटनाएं कुछ ऎसी घटती हैं कि अब्बास का नाम अभिषेक बच्चन बता दिया जाता है। इस नाम के लिए एक झूठी कहानी गढी जाती है और फिर उसके मुताबिक नए किरदार जुडते चले जाते हैं।
गांव की अफलातून नौटंकी कंपनी में शास्त्री का बेटा रवि नया प्रयोग कर रहा है। एक ही व्यक्ति को दो नामों और पहचान से पेश करने में ही गोलमाल की तरह बोल बच्चन का हास्य निहित है। रोहित के साथ लगातार आठवीं फिल्म में काम कर रहे अजय देवगन का अभिनय जहाँ बेहद लाउड रहा है वहीं अभिषेक बच्चन ने अपनी अदाकारी से बॉलीवुड और उन दर्शकों के मुंह पर ताला लगाने में कामयाबी पायी है जो यह कहते हैं कि उन्हें अभिनय नहीं आता। इस फिल्म को देखते हुए उनकी दोस्ताना की याद जरूर आती है। कामेडी दृश्यों में उनकी टाइमिंग गजब की है। रोहित और अभिषेक का साथ कुछ वैसा ही नजर आया जैसा कभी डेविड धवन और गोविन्दा का हुआ करता था। फिल्म में असिन और प्राची दो नायिकाएँ हैं लेकिन उनके करने के लिए कुछ नहीं है।
पूर्ण रूप से पुरूष प्रधान इस फिल्म में महिला पात्रों में एक मात्र पात्र अर्चना पूरणसिंह का ऎसा है जो अपनी छाप छोडने में कामयाब रहा है। रोहित ने कृष्णा को सामने लाने का प्रयास किया है लेकिन उनसे बेहद लाउड एक्ट करवाया गया, जैसा कि वे कॉमेडी सर्कस में करते आ रहे हैं। कितने ताज्जुब की बात है कि इतने हैरतअंगेज एक्शन दृश्यों में सब कुछ होता है नहीं होता है तो केवल खून। पर्दे पर कहीं भी खून नजर नहीं आता। गुण्डे बदमाश व नायक इतना आपस में गुत्थमगुत्था होते हैं लेकिन किसी के एक बूंद खून नहीं बहता। कहीं-कहीं हंसी-मजाक के संवाद और दृश्य द्विअर्थी हैं, लेकिन वे पारिवारिक दर्शकों की मर्यादा में ही रहते हैं। अजय देवगन अब उबाऊ लगने लगे हैं हालांकि उनकी अंग्रेजी की चीरफाड दर्शकों को बेसाख्ता हंसने पर मजबूर करती है।
 लेखक और निर्देशक ने यह सावधानी जरूर रखी है कि हंसी की लहरें थोडी-थोडी देर में आती रहें। कभी-कभी हंसी की ऊंची लहर आती है तो दर्शक भी खिलखिलाहट से भीग जाते हैं। चुटीली पंक्तियां और पृथ्वीराज रघुवंशी की अंग्रेजी हंसी के फव्वारों की तरह काम करती हैं। ऎसे संवाद बोलते समय सभी कलाकारों की टाइमिंग और तालमेल उल्लेखनीय है। खासकर गलत अंग्रेजी बोलते समय अजय देवगन का विश्वास देखने लायक है। फिल्म का छांयाकन उम्दा है। कैमरामैन ने फिल्म के स्वभाव के मुताबिक पर्दे पर चटख रंग बिखेरे हैं। एक्शन दृश्यों और हवेली के विहंगम दृश्यों में उनकी काबिलियत झलकती है। हिमेश रेशमिया और अजय अतुल द्वारा दिये गये संगीत में सिर्फ दो ही गीत बोल बोल बच्चन और चलाओ ना नैनों के बाण रे दर्शकों की कसौटी पर खरे उतरते हैं।