दो दिलों का मिलन नहीं बल्कि शर्तो के घेरे में आये सात फेरे

दो दिलों का मिलन नहीं बल्कि शर्तो के घेरे में आये सात फेरे

दोनों की सोच प्रैक्टिकल जरूर हुई है, लेकिन पै्रक्टिकल होने के चक्कर में भावनाएं कहीं पीछे छूट रही हैं। इस मामले में कुछ परिवर्तन सकारात्मक भी हैं, लेकिन अगर सम्पूर्ण दृष्टि से देखा जाए तो- आज रिश्ते पहले से कहीं ज्यादा टूट रहे हैं। सहनशीलता और त्याग जैसे शब्दों को बेवकूफी समझा जाने लगा है। रिश्तों को बचाए रखनेकी कोशिशें अब शायद की ही नहीं जातीं। अहंकार को आत्मसम्मान का नाम देकर हर छोटी-बडी परिस्थिति को जटिल बना दिया जाता है।