लुभावनी, दिल को छूती है फरारी की सवारी

लुभावनी, दिल को छूती है फरारी की सवारी

बैनर : विधु विनोद चोपडा प्रोडक्शन्स
निर्माता : विधु विनोद चोपडा
निर्देशक : राजेश मापुस्कर
कथा-पटकथा : विधु विनोद चोपडा, राजेश मापुस्कर
संवाद : राजकुमार हिरानी
संगीत : प्रीतम चक्रवर्ती
कलाकार : शरमन जोशी, बोमन ईरानी, ऋत्विक साहोरे, सीमा पाहवा, परेश रावल, विद्या बालन (मेहमान कलाकार)
- राजेश कुमार भगताणी
क्रिकेट को लेकर बॉलीवुड में कई फिल्में बनी हैं लेकिन जिस धार के साथ विधु विनोद चोपडा ने तीन साल के लम्बे इंतजार के बाद अपने बैनर तले क्रिकेट को केन्द्र में रखकर फिल्म फरारी की सवारी दर्शकों के सामने रखी है वह न सिर्फ देखने लायक है बल्कि अपनी संवेदनशीलता के कारण यह दर्शकों के दिल को अन्दर तक छुने में कामयाब रही है। हालांकि कुछ कमियां लेकिन इसके बावजूद देखने के लायक है फरारी की सवारी। फिल्म की कहानी रूसी (शरमन जोशी) के बेटे कायो (ऋत्विक साहोरे) पर है जिसका सपना है कि वह एक दिन बडा क्रिकेट खिलाडी बने। आरटीओ में क्लर्क होने के बावजूद रूसी के पास पैसे की तंगी हमेशा बनी रहती है क्योंकि वह ईमानदार तो इतना कि रेड सिग्नल में यदि वह आगे बढ जाए तो खुद पुलिस के पास जाकर फाइन भरता है। अपने बेटे के सपने और पैसे की तंगी के बीच जूझ कर हताशा में वह कहता है कि हम जैसे (मिडिल क्लास) लोगों को तो सपने ही नहीं देखने चाहिए। बेटे के सपने को पूरा करने की जद्दोजहद में वह न चाहते हुए भी गलत काम कर बैठता है जिसके कारण कई परेशानियों से घिर जाता है। आखिरकार वह तमाम बिगडी हुई परिस्थितियों को सही करता है और थोडी देर के लिए पुत्र मोह में बेईमानी के रास्ते पर आगे बढने के बाद वह पुन: ईमानदारी की राह पर आ जाता है। निर्देशन में जहां फिल्म अव्वल नजर आती हैं, वही पटकथा के मोर्चे पर वह कुछ कमजोर रह गई है। मध्यान्तर पूर्व तक फिल्म जहां पूरी कसावट के साथ दर्शकों को अपने साथ जोडने में सफल होती है, मध्यान्तर के बाद वह कुछ ढीली पड जाती है। इस ढिलाई का सबसे बडा कारण रहा है मराठी नेता और उसके बेटे वाले ट्रेक को जरूरत से ज्यादा फुटेज देना, जिसकी वजह से फिल्म काफी लंबी हो गई है। सम्पादन टेबल पर इस प्रसंग को आसानी से छोटा किया जा सकता था, जिससे फिल्म में कसावट नजर आती। बतौर निर्देशक राजेश मापुस्कर की यह पहली फिल्म है, लेकिन उनका काम किसी अनुभवी निर्देशक की तरह है और उन्हें सिनेमा माध्यम की अच्छी समझ है। उन्होंने न केवल तमाम कलाकारों से बेहतरीन अभिनय करवाया है बल्कि तीन पीढी को अच्छी तरह से पेश किया है। सचिन तेंदुलकर के फिल्म में न होने के बावजूद पूरी फिल्म में उनकी उपस्थिति महसूस होती है और इसका श्रेय भी राजेश को जाता है। उन्होंने फिल्म में कई ऎसे दृश्य दिए जो लाजवाब है। इन दृश्यों की गहराई को देखकर ऎसा लगता ही नहीं कि वे पहली बार किसी फिल्म का निर्देशन कर रहे हैं। यह अनुभव उन्हें राजकुमार हिरानी के साथ मिला है जिनके साथ उन्होंने मुन्नाभाई और 3 इडियट्स जैसी फिल्मों में बतौर सहायक निर्देशक काम किया है। बेहतरीन दृश्यों में दो दृश्यों का जिक्र विशेष रूप से करना चाहेंगे पहला बोमन ईरानी और परेश रावल के मिलने का दृश्य और दूसरा घर में अपने पिता से मोबाइल के जरिए बात करने का दृश्य। मोबाइल वाला दृश्य जहां पहली बार मोबाइल खरीदने पर आजकल लोगों को कितनी खुशी मिलती है उसको दर्शाता है और परेश रावल और बोमन ईरानी के मिलने वाले दृश्य में इन दोनों सितारों ने जो भाव अपने चेहरे पर दिए हैं वह बेमिसाल हैं। अभिनय की दृष्टि से शरमन जोशी के 13 साल पुराने करियर की यह श्रेष्ठ फिल्मों में से एक मानी जाएगी क्योंकि इतना बडा अवसर उन्हें पहली बार मिला है। लेकिन वे इस मौके को अच्छी तरह से नहीं निभा पाए हैं। उनके चेहरे पर इस किरदार के अनुरूप वो भाव नहीं आ पाए हैं जिसकी आवश्यकता फिल्म की पटकथा को थी। फिर भी उन्होंने अच्छा काम किया है। वैसे यह पटकथा लेखक की कमी है जिन्होंने शरमन के किरदार को दया के पात्र के रूप में पेश किया है। दर्शक की इस पात्र के प्रति मन में दया आती है जो नहीं आनी चाहिए थी। घर में बैठे बुजुर्ग के किरदार को बोमन ईरानी ने अपने अभिनय से जीवंत कर दिया है। बाल कलाकार ऋत्विक साहोरे ने कमाल का अभिनय किया है। शरमन के साथ उनकी कैमिस्ट्री खूब जमी और उनके अभिनय में विविधता देखने को मिली। अपने चंद मिनट के किरदार में परेश रावल ने साबित किया कि वे हिन्दी सिनेमा के दिग्गज अभिनेता है। मेहमान भूमिका में आई विद्या बालन ने अपनी दमदार उपस्थिति दर्ज करवाई है। विद्या ने बिंदास डांस किया है। फिल्म में संगीत की कमी अखरती है। एक भी गीत ऎसा नहीं है जो दर्शकों को लुभाने में कामयाब हो सके। संगीतकार प्रीतम फिल्म के अनुरूप संगीत देने में असफल रहे हैं।