ऊन के गोले, सलाइयां और उधेडबुन
ऊन के गोले, सलाइयां और उधेडबुन
क्या मशीन से बुने स्वेटरों को पहनकर वह उष्मा आत्मीयता की गरमाहट मिल सकती है, जो हाथ की सलाइयों से बने स्वेटर से मिलती है।
ठंड की सिहरन अब हवा में तैरने लगी है। सर्दी का मौसम दस्तक दे चुका है। कुछ साल पहले की बात होगी। यही वह मौसम हुआ करता था, जब घरेलू और कामकाजी महिलाएं भी बहुत व्यस्त हो जाती थीं। उनके कई कामों की फेहरिस्त में एक काम और बढ जाता था - घर के सदस्यों के लिए स्वेटर बुनना।
दोपहर में समय निकालकर पास-पडोस की तीन-चार महिलाएं गु्रप बनाकर ऊन की रंग-बिरंगी लच्छियां खरीदने बाजार निकलती। लच्छी का प्रत्येक रंग बोलता हुआ-सा लगता। बैंगनी, पिश्तई, ऊदा नीला, गहरा लाल आदि सभी रंग तो कुछ न कुछ कहते। स्वेटर की बुनाई के दौरान लगने वाले रंगों को एक-दूसरे से मैच करके देखा जाता। असली सहेली या सखी तथ परिचिता की कसौटी इस बात पर होती कि वह अपनी बुनाई की डिजाइन सिखाती या नही। ज्यों-ज्यों सर्दी बढती, धूप सेंकती हुई चाची, मामी, बुआ व भाभी एक-दूसरे के हाथ में लच्छियां थमाकर तेजी से ऊन क नरम से गोले बना डालती। सलाइयों पर फंदे चढ जाते और हाथ तेजी से सलाइयों पर कहीं ऊन को आगे तो कहींं फंदे के पीछे करके डिजाइन बनाते। पता नहीं वह हाथों का क्या जादू था कि कभी एक रंग तो कभी तीन-चार रंगों के सजे फूल, चौकोर टुकडियां, तिरछी लाइनें, सभी के सभी सलाइयों से बुनाई में से बाहर निकलते। वाकई यह करिश्मा याद आता है तो हैरत होती है।