क्यों होती हैं दुराचारी और अधर्मी संतान
गर्भाधान के संबंध में स्मृतिसंग्रह मे लिखा है-
निषेकाद् बैजिकं चैनो गाार्भिकं चापमृज्यते।
क्षेत्रसंस्कारसिद्धिश्च गर्भाधानफलं स्मृतम्।।
अर्थात विधिपूर्वक संस्कार से युक्त गर्भाधान से अच्छी और सुयोग्य संतान उत्पन्न होती है। इस संस्कार से वीर्यसंबंधी तथा गर्भसंबंधी पाप का नाश होता है, दोष का मार्जन तथा क्षेत्र का संस्कार होता है। यही गर्भाधान-संस्कार का फल है।
पर्याप्त खोजों के बाद चिकित्साशास्त्र भी इस निष्कर्ष पर पहुंचा है कि गर्भाधान के समय स्त्री-पुरूष जिस भाव से भावित होते है, उसका प्रभाव उनके रज-वीर्य मे भी पडता है। अत: उस रज-वीर्यजन्य संतान में माता-पिता के वे भाव स्वत: ही प्रकट हो जाते है।
आहारचारचेष्टाभिर्यादृशोभि: समन्वितौ।
स्त्रीपुंसौ समुपेयातां तयो: पुत्रोप्राप्ति तादृश:।।
अर्थात स्त्री और पुरूष जैसे आहार-व्यवहार तथा चेष्टा से संयुक्त होकर परस्पर समागम करते है, उनका पुत्र भी वैसे ही स्वभाव का होता है।
धन्वंतरि भगवान का कहना है-ऋतुस्नान के बाद स्त्री जिस प्रकार के पुरूष का दर्शन करती है, वैसा ही पुत्र उत्पन्न होता है। अत: जो स्त्री चाहती है कि मेरे पति के समान गुण वाला या अभिमन्यु जैसा वीर, ध्रुव जैसा भक्त जनक जैसा आत्मज्ञानी, कर्ण जैसा दानी पुत्र हो, तो उसे चाहिए कि ऋतुकाल के चौथे दिन स्थान आदि के पवित्र होकर अपने आदर्श रूप इन महापुरूषों के चित्रों के दर्शन तथा सावक भावों से उनका चिंतन करे और इसी सा�वकभाव मे योग्य रात्रि को गर्भाधान करावे। रात्रि के तृतीय प्रहर (12 से 3 बजे) की संतान हरिभक्त और धर्मपरायण होती है। उक्त प्रमाणिक तथ्यों को ध्यान मे रखकर ही गर्भाधान-प्रक्रिया को एक पवित्र धार्मिक कत्त�व्य के रूप में संपन्न करने की व्यवस्था की गई और इसके लिए विधिवत देवी-देवताओं की प्रार्थना करके उनकी कृपा मांगी गई। संक्षेप में गर्भाधान से पहले पवित्र होकर द्विजाति को इस मंत्र से प्रार्थना करनी चाहिए।...