अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर विशेष
अब मेरी वाली मैं
रूप, गुण, शील, चाल-ढाल में हो निपुण
खाना पकाना, बच्चे पालना सब हों उसमें गुण।
साँवली है, थोड़ी नाटी है, चश्मा भी लगाती है,
बीए. एम. ए. हो या डॉक्टर, बहू तो चौके-चूल्हे में सुहाती है
गिटपिट अंग्रेजी में, जो हमपे हुकुम चलाए,
उससे तो अच्छा है, लड़का कुँवारा रह जाए।
सास-ससुर की सेवा औं घर के हर काम
बिना शिकन, बिना थकन, दिन-रात करे बिन आराम।
अजी! अब ख्यालों में ये ख्याली पुलाव पकाइए
लड़की को कमजोर समझने की भूल को भुलाइए ।
आज उड़ाती है वो जहाज़, खामोश आसमान को चीर कर,
साधती है निशाना, बंदूक, तलवार और तीर पर ।
पुलिसिया वर्दी में जुर्मों की गर्दन दबोचे
अब वो कैद चिड़िया नहीं जो अपने ही घावों को नोंचे
दहेज की बलिवेदी से, राष्ट्रपति की कुर्सी तक,
सती की चिताओं से सुरों की सरताज तक
अत्याचार की पीड़ाओं से, न्यायाधीश के फैसले तक,
कन्या भ्रूण हत्या से, बेटियाँ शान हैं के नारों तक।
वह उठ खड़ी हुई है, अपनी ही परछाँई का साया बनकर, अब ! कभी न मुड़ने के लिए ।।
शालिनी अग्रवाल चकोर
अजमेर, राजस्थान
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